धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
दूसरी ओर भक्ति पथ का पथिक दयालु ईश्वर से जिस आशा का सन्देश और आश्वस्तता की अनुभूति पाता है वह कर्म सिद्धान्त की कठोर प्रक्रिया से विरत बना देता है। ज्ञानी भक्त और कर्मपरायण दोनों को ही सत्य से दूर केवल कर्म बंधन और भावना में पड़ा हुआ मान लेता है। वस्तुत: इन तीनों के समन्वय का अभाव व्यक्ति को जीवन के किसी न किसी अंश में दुर्बल बना देता है। पर इन तीनों के एकत्रीकरण में व्यवहारत: कठिनाइयाँ भी कम नहीं हैं। एक समस्या तो यही है कि इन तीनों में इस या उस’ की स्वीकृति किसी सत्य को दृष्टिगत रख कर नहीं की जाती। स्वीकृति में भी स्वभावगत संस्कार मुख्य होते हैं। इसका एक भयावह परिणाम होता है-मान लें एक व्यक्ति की सक्रियता और एक चरित्र में त्रुटि है। स्वाभाविक है कि ऐसे व्यक्ति को कर्म-सिद्धान्त अप्रिय लगे और एक दयालु भगवान के गुणों का बखान करके आत्म-संतोष पाने का प्रयास करे। अब ऐसे व्यक्ति की भक्त के रूप में स्वीकृति का फलितार्थ क्या होगा? उस व्यक्ति की त्रुटि को हम भक्ति-सिद्धान्त की त्रुटि के रूप में देखेंगे। इसी प्रकार एक रजोगुणी व्यक्ति की अहंमूलक स्फूर्ति और दूसरे व्यक्ति का बुद्धि, वैभव और अहं के प्रति झुकाव कर्म और ज्ञान की प्रेरक बन कर इसी प्रकार की समस्याएं उत्पन्न कर देते हैं। अत: फलितार्थ रूप में तीनों ही वह परिणाम उत्पन्न नहीं कर पाते जिसकी सैद्धान्तिक रूप में उनसे अपेक्षा की जाती है। अत: सही अर्थों में तीनों का समन्वय एक दूसरे की कमी को पूर्ण कर सकते हैं। जैसे कर्म सिद्धान्त की सक्रियता, भक्ति सिद्धान्त में जिस निष्क्रियता का भय है उसे न आने देगी। साथ ही स्वयं कर्म-सिद्धान्त भक्ति के सहयोग से अपनी अहं प्रधान वृत्ति पर विजय पा सकता है। इसी प्रकार ज्ञान में दोनों ही भय हैं। वह व्यक्ति को निष्क्रियता और अहंकार दोनों ओर प्रेरित कर सकता है। भक्ति और कर्म के सहयोग से इन दोनों कठिनाइयों से मुक्त होकर वह सत्य की उपलब्धि का महान् साधन बन जाता है।
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